संतोष और सत्य

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अमृत का अर्थ होता है, जिससे जीवन मिले, जिससे अमरत्व मिले; जिससे उसका पता चले जो फिर कभी नहीं मरेगा।

तो क्षमा!

क्रोध विष है; क्षमा अमृत है।

आर्जव!

कुटिलता विष है; सीधा—सरलपन, आर्जव अमृत है।

दया!

कठोरता, क्रूरता विष है; दया, करुणा अमृत है।

संतोष।

असंतोष, का कीड़ा खाए चला जाता है। असंतोष का कीड़ा हृदय में कैंसर की तरह है; फैलता चला जाता है; विष को फैलाए चले जाता है।

संतोष—जो है उससे तृप्ति; जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं। जो है वह काफी से ज्यादा है। वह है ही काफी से ज्यादा। आंख खोलो, जरा देखो!

संतोष कोई थोपना नहीं है ऊपर जीवन के। जरा गौर से देखो, तुम्हें जो मिला है वह तुम्हारी जरूरत से सदा ज्यादा है! तुम्हें जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। तुमने जो चाहा है, वह सदा मिल गया है। तुमने दुख चाहा है तो दुख मिल गया है। तुमने सुख चाहा है तो सुख मिल गया है। तुमने गलत चाहा तो गलत मिल गया है। तुम्हारी चाह ने तुम्हारे जीवन को रचा है। चाह बीज है, फिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों—जन्मों में जो तुम चाहते रहे हो वही तुम्हें मिलता रहा है। कई बार तुम सोचते हो हम कुछ और चाह रहे हैं, जब मिलता है तो कुछ और मिलता है—तो तुम्हारे चाहने में भूल नहीं हुई है सिर्फ तुमने चाहने के लिए गलत शब्द चुन लिया था। जैसे—तुम चाहते हो सफलता, मिलती है विफलता। तुम कहते हो, विफलता मिल रही है, चाही तो सफलता थी।.

लेकिन जिसने सफलता चाही उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; वह विफलता से भीतर डर ही गया है। विफलता के कारण ही तो सफलता चाह रहा है। और जब—जब सफलता चाहेगा तब—तब विफलता का खयाल आयेगा। विफलता का खयाल भी मजबूत होता चला जायेगा। सफलता तो कभी मिलेगी; लेकिन रास्ते पर यात्रा तो विफलता—विफलता में ही बीतेगी। विफलता का भाव संगृहीभूत होगा। वह इतना संगृहीभूत हो जायेगा कि वही एक दिन प्रगट हो जायेगा। तब तुम कहते हो कि हमने तो सफलता चाही थी। लेकिन सफलता के चाहने में तुमने विफलता को चाह लिया।

लाओत्सु ने कहा है : सफलता चाही, विफलता मिलेगी। अगर सचमुच सफलता चाहिए हो, सफलता चाहना ही मत; फिर तुम्हें कोई विफल नहीं कर सकता।

लाओत्सु कहता है, मेरा कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सम्मान चाहता ही नहीं। यह सम्मान को पा लेना है। लाओत्सु कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि जीत की हमने बात ही छोड़ दी। अब हराओगे कैसे! तुम उसी को हरा सकते हो जो जीतना चाहता है अब यह जरा उलझा हुआ हिसाब है।

यह बड़ा मजेदार मामला है : दो भिखारी एक—दूसरे के सामने खड़े भीख मांग रहे हैं! यह भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। तुम किससे सम्मान मांग, रहे हो? किसके सामने खड़े हो? यह अपमान कर रहे हो तुम अपना। और यही अपमान गहन होता जायेगा।

संतोष का अर्थ होता है : देखो, जो तुम्हारे पास है। देखो जरा आंख खोल कर, जो तुम्हें मिला ही है। यह अष्टावक्र की बड़ी बहुमूल्य कुंजी है। यह धीरे—धीरे तुम्हें साफ होगी। अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी है, बड़ी अनूठी है, जड़—मूल से क्रांति की है।

‘संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा वह असत्य होता चला जायेगा। जो असत्य को बोलेगा, असत्य को जीयेगा, स्वभावत: असत्य से घिरता चला जायेगा। उसके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाएंगे, जड़ें टूट जाएंगी।