आन्तरिक खुदाई

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जलालुद्दीन रूमी एक दिन अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में और उसने कहा कि देखो इस खेत के मालिक की कला! उस खेत में आठ बड़े गड्डे थे और नौवा गड्डा खोदा जा रहा था। शिष्य भी नहीं समझ पाए। पूरा खेत खराब हो गया था। उन्होंने कहा, यह हो क्या रहा है! मालिक से पूछने पर पता चला कि कुआ खोद रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह तो पूरा खेत कुआ ही बना जा रहा है! एक भी गड्डे में पानी नहीं है! मालिक ने कहा, आठ हाथ खोदकर देखा कि पानी नहीं आता, तो सोचा, यहां से छोड़ो। फिर दूसरा खोदकर दस हाथ देखा, वहां भी पानी नहीं आया। वहा से भी छोड़ो। फिर तीसरा खोदा, वहां भी पानी नहीं आया। ऐसा खोदते—खोदते अब नौवां खोद रहे हैं।

रूमी ने कहा, इस आदमी को ठीक से समझ लो। यह आदमी बड़ा प्रतिनिधि है। इसी तरह के लोग हैं जमीन पर। वे एक गड्डा खोदते हैं दस हाथ, फिर सोचते हैं, पानी नहीं आया, छोड़ो। फिर दो—चार साल बाद दूसरा गड्डा खोदते हैं। फिर तीसरा गड्डा खोदते हैं। अगर यह आदमी एक ही जगह खोदता चला जाता, तो पानी कभी का आ जाता। और जिस ढंग से यह खोद रहा है, पूरा खेत भी खराब हो जाएगा और पानी कभी आने वाला नहीं है।

तो आप जब खोदना शुरू करें, तो खोदते ही चले जाना। बार—बार छोड्कर अलग—अलग जगह खोदने के परिणाम घातक होंगे। सतत लगे ही रहना। पानी तो निश्चित भीतर है। अगर बुद्ध के कुएं में आया, अगर कृष्ण के कुएं में आया, तो आपके कुएं में भी आएगा। आप उतना ही सब कुछ लिए हुए पैदा हुए हैं, जितना बुद्ध या कृष्ण पैदा होते हैं। फर्क इतना ही है कि आपने ठीक से खोदा नहीं है, या खोदा भी है तो अनेक जगह खोदा है।

सतत खुदाई चाहिए; जल के स्रोत भीतर हैं। खोदते ही आप चले जाएं। पहले तो कंकड़—पत्थर ही हाथ लगेंगे। फिर सूखी भूमि ही हाथ लगेगी ‘ फिर धीरे— धीरे गीली भूमि आनी शुरू होगी। जब आपके ध्यान में शांति मालूम पड़ने लगे, समझना कि गीली भूमि शुरू हो गई। और अब छोड़ना मत, क्योंकि शाति पहली खबर है आनंद की। जमीन गीली होने लगी। पानी पास है।

शांत मन खबर दे रहा है कि बहुत दूर नहीं है आनंद का स्रोत। थोड़ी मेहनत, थोड़ा श्रम, थोड़ी लगन, थोड़ी प्रतीक्षा और थोड़ा धैर्य, जलस्रोत निश्चित ही फूट पड़ने को है।

बहुत लोग बहुत बार ध्यान शुरू करते हैं, फिर छोड़—छोड़ देते हैं। यह बार—बार छोड़ देना समय को, शक्ति को खोना और अपव्यय करना है। ध्यान को पकड़ा हो तो फिर पकड़ रखना चाहिए, और सतत चोट करते जाना चाहिए। यह सतत चोट ही एक दिन उस पत्थर को पूरी तरह तोड़ देगी, जो आपके और परम सत्य के बीच में है।

इस घटना के पहले बहुत बार झलकें मिलेंगी, लेकिन झलकों से राजी मत हो जाना। झलकों से बहुत से लोग राजी हो जाते हैं। जो झलक से राजी हो जाता है, उसे फिर पूर्ण विराट की उपलब्धि का मार्ग बंद हो जाता है। जल्दी राजी मत हो जाना। उस समय तक राजी मत होना जब तक कि सहज न हो जाए, जब तक कि ध्यान श्वास जैसा न हो जाए, कि आप सोए भी रहें, तो भी ध्यान चलता रहे। आप कुछ भी करते रहें, तो भी ध्यान चलता रहे। कुछ भी ध्यान को खंडित न कर सके। जब तक ऐसी अवस्था न आ जाए, तब तक निरंतर, निरंतर इस तलाश को जारी रखना चाहिए।

कबीर परम अवस्था को पाने के बाद भी कपड़ा बुनते रहे, कपड़ा बेचने बाजार जाते रहे। उनके शिष्य उन्हें कहते थे, आप यह क्या कर रहे हैं? आप तो परम शान को उपलब्ध हो गए, आप तो अपना सारा समय अब प्रभु की साधना में लगाइए।

तो कबीर कहते, अब साधने को कोई बचा ही नहीं। जो साधता था, वह नहीं बचा। इसलिए कबीर ने कहा है, सहज समाधि भली। अब तो वह घड़ी आ गई, जब कि हम कुछ भी करें तो समाधि बनी रहती है। अब तो हम उठें, बैठें, काम करें, न करें, कुछ भी चलता रहे, समाधि बनी रहती है। समाधि हमारा सहज होना हो गई है।

जब तक सहज न हो जाए समाधि, तब तक, तब तक निरंतर, निरंतर निश्चेष्ट होने की, प्रक्रिया में डूबने की, ध्यान की लीनता को खोजते ही रहना है।

ओशो