मरघट ही मरघट

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इब्राहिम बड़ा सूफी संत हुआ । झोपड़ा बना रखा था राजधानी के बहार । कोई उससे पूछता : बस्ती का रास्ता कहा है ? कहता: बायें चले जाओ । भूल कर दायें मत जाना । दायां रास्ता मरघट का है । लोग उसकी बात मान लेते ।

लेकिन लोग लौटते धंटे दो धंटे के बाद, बड़े नाराज लौटते, बड़े गुस्से से लौटते, लडने झगड़ने को लौटते । इब्राहिम से कहते कि तुम होश में हो या पागल हो ? तुमने हमें मरधट को भेज दिया । जिस तरह तुमने मरधट बताया वहां गांव है और जहां तुमने गांव बताया वहां मरघट है ।

इब्राहिम ने कहा: क्षमा करो, अपनी – तुमनी भाषा अलग । तुमसे झूठ नहीं बोला हूं
“जिसको तुम बस्ती कहते हो, वहा बस्ती नहीं है, क्योंकि वहां कोई कब बसा रह सका? बस्ती तो उसे कहनी चाहिए जहां बसे सो बसे”
” जिसको तुम मरधट कहते हो, उसको में बस्ती कहता हूं कि वहां जो बस गया एक बार सो बस गया, फिर कभी उजड़ता नहीं ”
” और तुम बस्ती कहते हो ! जहां रोज उजड़ रहे हैं, वहां रोज लोग मर रहे हैं । उसको बस्ती कहते हो ! जहां पंक्तिबद्ध लोग खड़े हैं मरने को, उसको बस्ती कहते हो ! तो क्षमा करना, भाई मेरी तुम्हारी भाषा अलग है । भाषा की भूल हो गयी । जानकर तुम्हें भटकाया नहीं । तुमने अगर मरधट पूछा होता, तो मैं तुम्हें उस जगह भेज देता जिसको तुम बस्ती कहते हो । बस्ती ? वही, जहां बसे हुए कभी उजड़ते नहीं ।

हमारी बस्तियों में सिवाय उपद्रव के, झंझटों के, जंजाल के और कया है? मरघट में कमसे कम शांति तो है, मौन तो है, कलह तो नहीं है ।

जहां परमात्मा को प्रेम करने वाले लोग, परमात्मा को परखने वाले लोग, परमात्मा के चरणों को गहने वाले लोग बस्ते हों-समझना वहीं बस्ती है, बाकी तो मरघट ही मरघट है ।

“कब्रों के मनाजिरने करवट कभी ना बदली ।
अंदर वही आबादी, बाहर वही विराना ।।”

ओशो