व्यावसायिक दिमाग (धन्धा चलता रहे)

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एक रात एक मधुशाला में बड़ी देर तक कुछ मित्र आके खाना-पीना करते रहे, शराब पीते रहे. उन्होंने खूब मौज की. और जब वो चलने लगे आधी रात को तो शराबखाने के मालिक ने अपनी पत्‍नी को कहा कि, “भगवान को धन्यवाद, बड़े भले लोग आए. ऐसे लोग रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम मालामाल हो जाएँ.”

विदा होते मेहमानों को सुनाई पड़ गया और जिसने पैसे चुकाए थे उसने कहा कि, “दोस्त, भगवान से प्रार्थना करो कि हमारा भी धन्धा रोज चलता रहे, तो हम तो रोज आएँ.”

चलते-चलते उस शराबघर के मालिक ने पूछा कि, “भाई, तुम्हारा धन्धा क्या है?” उसने कहा, “मेरा धन्धा पूछते हो, मैं मरघट पे लकड़ियाँ बेचता हूँ मुर्दों के लिए. जब मुर्दे ज्यादा मरते हैं, तब मेरा धन्धा चलता है, तब हम थोड़े खुश होते हैं. हमारा धन्धा रोज चलता रहे, हम रोज यहाँ आते रहें.”

ओशो

(संभोग से समाधि की ओर)