मृत्‍यु और ध्यान

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आदमी जितनी सुरक्षा में जीएगा, उतना मूर्च्छित जीएगा।

क्योंकि सुरक्षा में सब परिचित है। जो आदमी जितनी असुरक्षा में, इनसिक्योरिटी में जीएगा, उतना जागा हुआ जीएगा। इसलिए साधारणत: ऐसा समझें कि खतरे के क्षणों को छोड्कर हम कभी जागते नहीं हैं,

हम सोए ही होते हैं। अगर मैं तुम्हारी छाती पर एक छुरा रख दूं अभी, तो तुम जाग जाओगे बहुत और अर्थों में, जैसे कि तुम अभी जागे हुए नहीं हो।

क्योंकि तुम्हारी छाती पर छुरा रखा जाएगा तो इतनी इमरजेंसी, इतने संकट की अवस्था पैदा हो जाएगी, इतनी आपात्कालीन घड़ी होगी कि उस वक्त सोने को अफोर्ड नहीं किया जा सकता। नहीं, उस वक्त तुम सोए—सोए नहीं रह सकते,

क्योंकि इतने खतरे में अगर सोए रहे तो मरने का डर हो जाएगा। इतने खतरे में तुम्हारा सारा प्राण सघन हो जाएगा, तुम्हारा सारा ध्यान सघन हो जाएगा। एक छुरा ही रह जाएगा

तुम्हारे ध्यान में और तुम छुरे के प्रति पूरी तरह जाग जाओगे। हो सकता है यह एक ही सेकेंड को हो। खतरे के क्षणों में ही हमारा ध्यान साधारणत: सघन होता है। खतरा निकल जाता है, हम फिर वापस अपनी जगह पर लौट आते हैं, फिर सो जाते हैं।

शायद इसीलिए खतरे का आकर्षण भी है। खतरा हम उठाना चाहते हैं। एक जुआरी जुआ खेलता है। शायद ही हमें खयाल हो कि जुआरी के जुआ खेलने में कौन—सा रस है। खतरे का रस है। दाव के क्षण में वह जाग जाता है, जितना वह कभी जागा हुआ नहीं होता है। एक जुआरी ने लाख रुपये दांव पर रख दिये हैं, पांसे फेंकने को है, यह क्षण बड़े संकट का है।

और इस क्षण में लाख इस तरफ या लाख उस तरफ हो जाने वाले हैं। इस क्षण में सोया हुआ नहीं रहा जा सकता है। इस क्षण में जागना ही पड़ेगा। एक क्षण को, दांव का जो क्षण है, वह ध्यान को प्रगाढ़ कर जाएगा। अब तुम हैरान होओगे कि मेरी समझ में जुआरी भी ध्यान खोज रहा है। उसे पता हो या न हो, यह दूसरी बात है।

एक आदमी विवाह करके ले आया है। फिर जिस पत्नी से वह रोज—रोज परिचित हो जाता है, उसके प्रति सो जाता है। बंधा हुआ रास्ता है। उसी पर वह रोज—रोज आता—जाता है। पड़ोस की स्त्री एकदम आकर्षक मालूम होती है। कुछ और बात नहीं है।

पड़ोस की स्त्री ध्यान को जगाती है। अपरिचित है। उसको देखते वक्त ध्यान को सघन होना पड़ता है। आंख का फोकस फौरन बदल जाता है। असल में पत्नी को देखने के लिए आंख में किसी फोकस की जरूरत ही नहीं होती, न पति को देखने में होती है। असल में पति, पत्नी को शायद ही कोई कभी देखता हो। ऐसा हम आंख बचाकर चलते हैं कि पत्नी, पति को दिखाई न पड़ जाए। इस तरह चलते हैं, इस तरह जीते हैं।

वहा कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए दूसरी स्त्री में दूसरे पुरुष का जो आकर्षण है, मेरे हिसाब से ध्यान का ही आकर्षण है। उस एक क्षण में, पुलक में, एक क्षण को चित्त जागता है और जागना पड़ता है। हम किसी को देख पाते हैं।

पुराने मकान की जगह नए मकान की दौड़ है। पुराने कपड़ों की जगह नए कपड़ों की दौड़ है। पुराने पद की जगह नए पदों की दौड़ है। यह सारी की सारी दौड़ बहुत गहरे में ध्यान के सघन होने की आकांक्षा है।

और जीवन में जितना भी आनंद है वह आनंद, ध्यान जितना सघन हो, इस पर निर्भर करता है। आनंद के क्षण ध्यान की सघनता के क्षण हैं। इसलिए जिन्हें आनंद पाना हो, उन्हें जागना अनिवार्य है। सोए—सोए आनंद नहीं पाया जा सकता।

धर्म भी ध्यान की तलाश है और जुआ भी। और जो आदमी युद्ध के मैदान में तलवार लेकर लड़ने गया है, वह भी ध्यान की तलाश में गया है। और जो आदमी जंगल में शेर का शिकार करने चला गया है, वह भी ध्यान की तलाश में गया है। और जो आदमी गुफा में बैठकर आंख बंद करके आशा चक्र पर श्रम कर रहा है,

वह भी ध्यान की तलाश में गया हुआ है। ये तलाश शुभ और अशुभ हो सकती हैं, लेकिन यह तलाश एक है। कोई तलाश वांछनीय और कोई अवांछनीय हो सकती है, लेकिन तलाश एक है। और कोई तलाश असफल हो सकती है और कोई सफल हो सकती है, लेकिन तलाश की आकांक्षा एक है।

ध्यान का अर्थ है कि मेरे भीतर जो जानने की शक्ति है, वह पूरी प्रकट हो। उसमें कोई भी हिस्सा मेरे भीतर पोर्टेट न रह जाए, बीज—रूप न रह जाए। मेरे भीतर जितनी भी क्षमता है जानने की, वह पोटेंशियल न रह जाए, एक्‍चूअल हो जाए, वास्तविक हो जाए।

 

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–10)