चालाकी भरी धार्मिकता

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मैंने सुना है, एक यहूदी कथा है वह मैं तुमसे कहूं। मैंने सुना है, एक बड़ी धार्मिक बिल्ली थी। बिल्ली थी और बिल्ली आमतौर से चालाक होती है। चालाक लोग धार्मिक हो जाते हैं। क्योंकि धार्मिकता तुम्हारी बड़ी चालाकी है। तुम कहते जरूर हो कि यह गैर-सांसारिक है, लेकिन अगर गौर करोगे, तो तुम्हारा धर्म तुम्हारे संसार का ही फैलाव है, वह एक बड़ी दूकानदारी है, वह एक पारलौकिक स्वार्थ है। वह दूर तक का इंतजाम है।

बिल्ली बड़ी धार्मिक थी और दिन-रात माला हाथ में लिए बैठी रहती थी। शाकाहारी थी दिन में। रात में मांसाहारी हो जाती थी। रात में पास-पड़ोस के चूहे मार आती थी, वह भी दया के वश कि अगर मैं चूहे न मारूंगी तो पास-पड़ोस के लोग चूहों से बड़े परेशान होंगे। अधार्मिक मन अधार्मिक ही रहेगा। वह धर्म की आड़ में भी अपने लिए हिसाब खोज लेगा। सिर्फ पड़ोसियों की सेवा की दृष्टि से रात को वह जाकर मार आती थी। खुद जिस घर में रहती थी उस घर में तो चूहे भी नहीं मारती थी, क्योंकि दाग छूट जाये, निशान आ जाये, तो लोगों को पता चल जायेगा कि बिल्ली धार्मिक नहीं है।

जिनको तुम धार्मिक कहते हो उनका भी एक घेरा होता है, उसमें वे धार्मिक होते हैं, उसके बाहर नहीं। उसके बाहर तुम उन्हें देखो, तुम उन्हें पक्का अधार्मिक पाओगे। मंदिर में तुम देखो, वे माला जप रहे हैं; दूकान पर तुम उन्हें देखो, वे जेब काट रहे हैं। जितनी कुशलता से माला पर उनके हाथ फिरते हैं, उससे भी ज्यादा कुशलता से वे जेब काटते हैं। तुम उनकी शकल मंदिर में देखो और दूकान में तुम पहचान न पाओगे कि शकल एक ही आदमी की है।

घर के लोग भी मानते थे, क्योंकि उन लोगों को दिन का ही चेहरा दिखाई पड़ता है। पास-पड़ोस के लोग भी मानते थे कि बिल्ली बड़ी धार्मिक है; ऐसी बिल्ली कभी देखी नहीं। उसका बड़ा सम्मान था, लोग झुक-झुक कर नमस्कार करते थे।

लेकिन एक दिन बड़ी मुसीबत हुई। घर के लोग एक तोते को ले आये। और वे निश्चिंत थे कि बिल्ली धार्मिक है, शाकाहारी है। तोते ने आते ही से गीत गाना शुरू कर दिया, बिल्ली बड़ी नाराज हुई। उसने कहा यह उपद्रव आ गया घर में। अब मेरी माला फेरना, ध्यान करना, जपत्तप सबमें बाधा पड़ेगी; यह तोता बड़ा अधार्मिक मालूम होता है। फिर उसने सोचा कि न केवल यह अधार्मिक है, बल्कि जिस ढंग के बेहूदे गीत गा रहा है…कामुक मालूम होता है। शैतान ने इसको पकड़ा हुआ है, वही इसके कंठ से ऐसी कामुकता पैदा करवा रहा है। रात होते तक उसने अपने को पक्का भरोसा दिला लिया कि इसका अंत करना इसके ही हित में है, क्योंकि शैतान इसे पकड़े हुए है। और जब तक इसका इस शरीर से छुटकारा न हो तब तक शैतान से छुटकारा न होगा।

रात उसने झपट्टा मार दिया। सारे पंख नोच डाले, सब कमरे में खून फैल गया। सुबह उस बिल्ली की बड़ी पिटाई हुई। वह तोते को खा गई। उसे बड़ा पश्चात्ताप भी हुआ। पश्चात्ताप तोते को खाने से नहीं हुआ, वह तो धार्मिक कृत्य था।

यही तो दुनिया के धार्मिक लोग कर रहे हैं। मुसलमान हिंदुओं को मार रहे हैं; हिंदू मुसलमानों को मारना चाहते हैं। ईसाई मुसलमान की हत्या करना चाहते हैं; मुसलमान ईसाई को मिटा देना चाहते हैं। सारे धार्मिक लोग! पर उनकी भी अगर तुम भाषा समझो तो बिल्ली की ही भाषा है। मुसलमान हिंदू को इसीलिए तो मारना चाहता है कि यह अधार्मिक, अगर अधार्मिक रह गया तो नरक में सड़ेगा। इसको धार्मिक बनाना जरूरी है। अगर बन जाये जीते जी, तो ठीक; अन्यथा यह भी इसी के हित में है कि कम से कम धर्म के मार्ग पर मरा। इसका छुटकारा दिलाना जरूरी है।

पश्चात्ताप उसे हुआ; इसलिए नहीं कि उसने तोते को मार डाला। पश्चात्ताप उसे हुआ कि गलती यह हो गई कि मुझे पंख सारे घर में नहीं फैलाने थे और खून के दाग फर्श पर पड़ गये, फर्श कीमती है। घर के लोग इसीलिए नाराज हैं, दुबारा स्मरण रखना जरूरी है।

तोता फिर दूसरा बाजार से खरीद के लाया गया। रात उसने फिर हमला किया। लेकिन वह पूरे तोते को लील गई; न तो उसने पंख तोड़े, न फर्श पर खून की अब बूंद गिरने दी। और वह बड़ी प्रसन्न हुई कि अब घर के लोग बड़े आनंदित होंगे। और तोतों को मुक्ति दिलाना बिल्लियों का कर्तव्य ही है। एक आत्मा इस नारकीय शरीर से मुक्त हुई, रहता इस शरीर में तो कुछ न कुछ पाप करता; अब कोई पाप करने को न बचा।

सुबह उसकी फिर पिटाई हुई। उसे समझना बड़ा मुश्किल हुआ। लेकिन अब उसे समझ में आया कि हो न हो, पंखों के कारण नहीं पीटी गई थी, न खून के दाग के कारण–ये घर के लोग तोते को मारने के पक्ष में नहीं हैं। तो आगे स्मरण रखना है, अब तोते को छूना ही नहीं है।

फिर तीसरा तोता लाया गया। बिल्ली ने उसे मुस्कुरा कर देखा। वह मुस्कुराहट वैसी ही थी जैसी धार्मिक लोगों की मुस्कुराहट होती है–झूठी। उसने बड़े आशीर्वचन भी कहे माला हाथ में लिए, वे वैसे ही थे जैसे तथाकथित साधुओं के होते हैं। उसने अपने मन को सब तरह समझाने की कोशिश की कि रहने दो यह नारकीय है, खुद भटकेगा, हमारा क्या बिगड़ता है? लेकिन रात तोते के पास पहुंची। पक्का निर्णय था कि अब इसको मारना नहीं है। लेकिन फिर भी इसे कुछ उपदेश देना तो जरूरी है। तोते के सींकचे के पास वह गई और उसने कहा कि सुन, ये गीत कामुक हैं जो तू गा रहा है; और ये आकाश की तरफ आंख उठा कर जो बातें तू करता है ये बेहूदी हैं और अधार्मिक हैं।

क्योंकि धार्मिक लोगों को प्रसन्नता सदा अधार्मिक मालूम पड़ती है। गीत सदा अधार्मिक मालूम पड़ते हैं, संगीत सदा नरक का द्वार मालूम पड़ता है। उदासी, लंबे चेहरे, रोते हुए मुर्दा लोग, उन्हें लगते हैं कि धर्म है।

बिल्ली को पास आया देख कर तोता एकदम कंपने लगा, फड़फड़ाने लगा। बिल्ली ने कहा, ‘तो अच्छा भला है तू, कोई हर्जा नहीं, फड़फड़ाने से कोई हर्ज नहीं है, तड़फड़ाने से कोई हर्ज नहीं है। लेकिन अपने को बदल। और अगर तू भयभीत हो रहा है, तो यह अच्छा लक्षण है। क्योंकि जो परमात्मा से भयभीत होते हैं वही उस तक पहुंच पाते हैं। और मैं इस स्थिति में तेरी थोड़ी सहायता करूंगी।’

उसने एक पंजा अंदर डाला ताकि तोता और फड़फड़ा सके और फिर उसने कहा कि न मारने का तो मैंने तय ही कर लिया है; तुझे मारूंगी नहीं, लेकिन तुझे हिलाने में तो कोई हर्जा नहीं है। उसने तोते को खूब हिलाया। वह हिलाने से तोता मर गया। और जब तोता मर गया तो बिल्ली ने सोचा कि घर के लोग हिंसा के विपरीत हैं कि किसी को मारना नहीं, लेकिन मरे हुए को खाने में तो कोई हर्ज नहीं।

ऐसी घटना बौद्धों के इतिहास में घटी। सारे बौद्ध मांसाहार कर रहे हैं, उनको यह बिल्ली की कहानी पढ़नी चाहिये। वह घटना बड़ी हैरानी की है। एक बौद्ध भिक्षु भीख मांगने गया। बुद्ध मांसाहारी नहीं थे। और बुद्ध चाहते नहीं थे कभी कि भिक्षु मांसाहारी हो।

एक भिक्षु भोजन मांगने गया। आकाश में उड़ती एक चील के मुंह से एक मांस का टुकड़ा उसके भिक्षापात्र में गिर गया–संयोग की बात! वह बड़ा मुश्किल में पड़ा, क्योंकि नियम था बुद्ध का कि जो भी लोग भिक्षापात्र में डाल दें, उसको बिना चुनाव के भिक्षु को स्वीकार कर लेना चाहिए।

और नियम अच्छा था। नहीं तो मिठाइयां भिक्षु चुन लेंगे, साग-सब्जी, रूखा-सूखा फेंक देंगे। चुनाव नहीं करना है, जो भी भिक्षापात्र में पड़ जाये, चार-छः घरों से जो भी मिल जाये, उस सबको वैसे ही स्वीकार कर लेना है।

उस भिक्षु ने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हुई। यह जो मांस का टुकड़ा गिर गया, इस पर नियम लागू होगा कि नहीं? इसको स्वीकार करना है कि नहीं? वह आया और उसने बुद्ध को संघ में पूछा कि मैं क्या करूं? मेरे भिक्षापात्र में एक मांस का टुकड़ा गिर गया है। नियम के हिसाब से इसे मैं खाऊं या फेंक दूं?

बुद्ध चुप रहे थोड़ी देर और उन्होंने सोचा। सोचा उन्होंने कि अगर मैं कहूं कि इसे फेंक दो, तो एक व्यवस्था मिल जायेगी सदा के लिए कि भिक्षु निर्णय कर सकता है कुछ चीजें छोड़ने को। अभी तो मैं हूं, कल मैं नहीं रहूंगा। और यह नियम सदा के लिए हो जायेगा और तब मुसीबत होगी। भिक्षु मिठाइयां खा लेंगे, साग-सब्जियां, अच्छी पूड़ियां ले लेंगे; बाकी जो है, फेंक देंगे। उससे भोजन की भी हानि होगी और भिक्षु स्वाद की तरफ लोलुपता से बढ़ेगा।

फिर बुद्ध ने सोचा, और यह मांस का टुकड़ा जो गिर गया है चील के मुंह से, यह कोई रोज घटनेवाली घटना नहीं है। यह फिर कोई दुबारा घटेगी इसका भी कोई कारण नहीं है। इसलिए उचित यही है कि नियम न तोड़ा जाये। और उन्होंने कहा कि नियम तोड़ने की कोई जरूरत नहीं, चीलें रोज-रोज मांस के टुकड़े नहीं गिरायेंगी, जो भी भिक्षापात्र में आ जाये उसे ले लो।

मांसाहार इस तरह शुरू हुआ। अब बौद्ध भिक्षु जाता है, आप मांस डाल दें वह ले लेता है। जब वह ले लेता है मांस, तो धीरे-धीरे लोग उसे मांस देने लगे। और जिन घरों से मांस मिलता है, उन्हीं घरों में वह मांगने पहुंच जाता है।

फिर बुद्ध ने कहा कि मार कर खाना हिंसा है। मरा हुआ जानवर हो, उसके मांसाहार में कोई हिंसा नहीं है। बात बिलकुल ठीक है। क्योंकि मारने में हिंसा है। अब कोई जानवर मर ही गया उसके मांसाहार में क्या हिंसा है? कोई हिंसा नहीं है। तो आज चीन, जापान, बर्मा, लंका, श्याम, सारे बौद्ध मुल्कों में; जैसे हमारे यहां लिखा रहता है, ‘असली शुद्ध घी यहां मिलता है,’ वहां लिखा रहता है मांस की दूकानों पर कि ‘यहां मरे हुए मांस को ही बेचा जाता है। मरे हुए जानवर का मांस ही यहां मिलता है।’ अब इतने जानवर न तो मरते हैं, लेकिन इससे भिक्षु को क्या प्रयोजन? बौद्ध को क्या प्रयोजन? तख्ती जब साफ लिखी है–वह दूकानदार का काम है कि वह मार कर लाता है, कि कैसे लाता है! इतना मांस कहां से आता है? करोड़ों लोग मांसाहार करते हैं, सारा बौद्ध-धर्म मांसाहार से भर गया। एक छोटी सी चील ने वह काम किया जो बुद्ध न कर पाए।

आदमी अपने मन का हिसाब खोज लेता है हर जगह से। उस बिल्ली ने सोचा, मरे हुए को खाने में क्या हर्ज है! वह तोते को खा गई।

तुम इस बात को स्मरण रखना कि तुम जो कर रहे हो, तुम जो तर्क दे रहे हो, तुम जो बहाने खोज रहे हो, वे बहाने तुम्हारी अचेतन-वृत्तियों से तो नहीं आते? अगर अचेतन-वृत्तियों से आते हैं तो सजग होकर उनको पहचानना, क्योंकि वे सिर्फ बहाने हैं–वे तर्क, तर्र्क नहीं हैं। वे झूठे तर्क हैं।

ओशो