ओशो – परिस्थितियां ही अनुभव कराती है अच्छा या बुरा

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परिस्थितियां ही अनुभव कराती है अच्छा या बुरा

एक घटना मुझे स्मरण आती हैं, कोरिया में एक भिक्षुणी स्त्री एक संन्यासीनी, एक रात एक गांव में भटकती हुई पहूंची । रास्ता भटक गयी थी और जिस गांव में पहूचंना चाहती थी वहां न पहूचंकर, दूसरे गाँव पहूच गयी।
उसने जाकर एक घर का दरवाजा खटखटाया, आधी रात थी दरवाजा खुला लेकिन उस गांव के लोग दुसरे धर्म को मानते थे और वह भिक्षुणी दूसरे धर्म की थी। उस दरवाजे के मालिक ने दरवाजा बंद कर लिया और कहा- देवी यह द्वार तुम्हारे लिये नहीं है। हम इस धर्म को नहीं मानते हैं तुम कहीं और खोज कर लो और उसने चलते वक्त यह भी कहा की इस गांव में शायद ही कोई दरवाजा तुम्हारें लिए खुले।
क्योंकि इस गांव के लोग दूसरे ही धर्म को मानते है। और हम तुम्हारे धर्म के दुश्मन है। आप तो जानते ही हैं कि धर्म-धर्म आपस में बडे क्षत्रु है। एक गांव का अलग धर्म हैं, दूसरे गांव का अलग धर्म है। एक धर्म वाले को दसूरे धर्म वाले के यहां कोई जगह नहीं, कोई आशा नहीं, कोई प्रेम नहीं, द्वार बंद हो जाते है।
द्वार बंद हो गये उस गांव में। उसने दो-चार दरवाजे खटखटाये लेकिन दरवाजे बंद हो गये, सर्दी की रात है। अधंरी रात है वह अकेली स्त्री है , वह कहां जायेगी ?
लेकिन धार्मिक लोग इस तरह की बाते कभी नहीं सोचते , धार्मिक लोग ने मनुष्यता जैसी कोई बात कभी सोची ही नहीं। वे हमेशा सोचते हैं हिन्दु हैं या मुसलमान, बौद्ध हैं या जैन। आदमी का सीधा मूल्य उनकी नजर में कभी नही रहा। उस स्त्री को वह गांव छोड देना पडा। आधी रात वह जाकर गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे सो गई।
कोई दो घंटे बाद ठण्ड के कारण उसकी नींद खुली उसने आंख खोली उपर आसमान तारों से भरा है। उस पेड़ पर फुल खिल गये है। रात के खिलने वाले फुल उनकी सुगंध चारों तरफ फैल रही है। पेड़ के फुल चटख रहे है। आवाज आ रही है और फूल खिलते चले जा रहे है।
वह आधी घडी मौन उस पेड़ के फूलों को खिलते देखती रही आकाश के तारों को देखती रही। फिर दौडी गांव की तरफ फिर जाकर उसने उन दरवाजों को खटखटाया जिन दरवाजों को उनके मालिकों ने बंद कर लिया था।
आधी रात फिर कौन आ गया ? उन्होंने दरवाजे खोले, वह भिक्षुणी खडी है। उन्होंने कहा हमने मना कर दिया यह द्वार तुम्हारें लिये नहीं हैं फिर दोबारा क्यों आ गई हो। लेकिन उस स्त्री के आंखों से कृतज्ञता के आंसु बहे जाते है। उसने कहा नहीं अब द्वार खुलवाने नहीं आयी, अब ठहरने नहीं आई केवल धन्यवाद देने आई हूं।
अगर तुम आज मुझे अपने घर में ठहरा लेते तो रात आकाश के तारे ओर फूलो का चटख कर खिल जाना मैं देखने से वंचित ही रह जाती। मैं सिर्फ धन्यवाद देने आई हूं कि तुम्हारी बडी कृपा थी कि तुमने द्वार बंद कर लिये और मैं खुले आकाश के नीचे सो सकी। तुम्हारी बडी कृपा थी कि तुमने घर की दीवालों से बचा लिया और खुले आकाश में मुझे भेज दिया।
जब तुमने भेजा था तब तो मेरे मन को लगा था कैंसे बूरे लोग हैं, अब मैं यह कहने आई हूं कि कैंसे भले लोग हैं इस गांव के मैं धन्यवाद देने आई हूं। परमात्मा तुम पर पर कृपा करें।
जैसी तुमने मुझे एक अनुभव की रात दे दी, जो आनन्द मैंने आज जाना हैं जो फूल मैंने आज खिलते देखे हैं जैसे मेरे भीतर भी कोई चाटख गई हो और खिल गई हो। जैसी आज अकेली रात में आकाश के तारे देखे हैं जैसे मेरे भीतर ही कोई आकाश स्पष्ट हो गया हो, और तारे खिल गये हो मैं उसके लिए धन्यवाद देने आई हूं। भले लोग हैं तुम्हारे गांव के |
परिस्थिति कैसी हैं इस पर कुछ निभर नहीं करता। हम परिस्थिति को कैंसे लेते हैं इस पर सब कुछ निर्भर करता। तब तो राह पर पडे हुए पत्थर भी सीढिया बन जाते है। और जब हम परिस्थतियों को गलत ढंग से लेने के आदि हो जाते हैं तो सीढ़िया भी मंदिर की पत्थर मालूम पडने लगती है। जिनसे रास्ता रूकता हैं पत्थर सीढी बन सकते है। सीढियां पत्थर मालूम हो सकती है, अवसर दूर्भाग्य मालूम हो सकते है। हम कैंसे लेते हैं हमारीे देखने की दृष्टि क्या है। हमारी पकड क्या है, जीवन का कोण हमारा क्या है, हम कैंसे जीवन को लेते हैं और देखते है।
आशा भर कर जीवन को देखें। साधक अगर निराश से जीवन को देखेगा तो गति नही कर सकता है। आशा से भरकर जीवन को देखें। अधैर्य से भरकर अपने जीवन को देखेंगे तो मन को साधक एक कदम आगे नहीं बढ़ सकता है। धैर्य से अनन्त धैर्य जीवन को देखें। उतावले पन में जीवन को देखेंगे , शीघ्रता में भागते हुए तो साधक एक इंच आगे नही बढ़ सकता है।